हिंदी सिनेमा और रंगमंच के एक जाने-माने नाम और पृथ्वीराज कपूर की विरासत का एक चमकता सितारा, शशि कपूर अलविदा कह गए. इस सितारे की जगह अब सितारों में है. इस जहां को वैसे भी उनकी याद कम ही आती थी. पिछले कुछ समय से बीमार थे. अस्पताल में भर्ती शशि चुपचाप खामोश हो गए हैं. पीछे अब यादों के किस्से-फसाने दुनिया दोहराती नज़र आ रही है.
शशि कपूर पृथ्वीराज कपूर से सबसे छोटे बेटे थे. थियेटर का यह पितामह माना जाने वाला पिता और दो बड़े भाई, महान शो मैन राज कपूर और लोगों को दीवाना कर देने वाले शम्मी कपूर इनसे बड़े थे. ऐसे में शशि के लिए ज़िंदगी में कुछ भी आसान नहीं था. न फ़िल्में और न थिएटर. घर पर छोटे का दुलार मिला. सबका प्यार मिला और साथ मिली पीपल और बरगद जैसे व्यक्तित्वों के आगे खुद को खड़ा कर पाने की चुनौती.
घर में थिएटर का माहौल था. बड़े-बड़े और भारी सेट वाले नाटकों के साथ पृथ्वीराज कपूर उन दिनों मुंबई और भारत के रंगमंच पर राज करते थे. शौकत कैफ़ी और ज़ोहरा सैगल उन दिनों ‘पापाजी’ यानी पृथ्वीराज के थिएटर की नायिकाएं थीं. पृथ्वीराज खुद कमाल के अदाकार और दमदार आवाज़ के मालिक थे. वो आवाज़ कमज़ोर होने के बाद भी मुग़लेआज़म के अक़बर को अमर कर गई.
इसी माहौल और थिएटर के टिकटों के काउंटर से शशि कपूर की शुरुआती ट्रेनिंग शुरू हुई. उन दिनों पृथ्वी थिएटर के सामने नाटक देखनेवालों की लंबी कतारें होती थीं. शशि पिता के साथ थिएटर के काम में हाथ बंटाते थे. एक मुलाक़ात में उन्होंने बताया कि उन्होंने पापाजी के साथ टिकट बांटने तक का काम किया था.
लेकिन आगे का रास्ता उन्होंने खुद बनाना शुरू किया. यह ज़रूरी भी था कि थिएटर का घराना बन चुके परिवार की सीमाओं से बाहर निकलकर कुछ सीखें और नया करें. यही शशि को साध सकता था और यही उनको रास भी आया.
अपनी किशोरावस्था तक वो नाटकों और कुछ फिल्मों में छोटे-बड़े रोल निभाते रहे और फिर एक एंगलो-इंडियन थिएटर ग्रुप के साथ कलकत्ते चले गए. उस थिएटर ग्रुप को जेनिफर के पिता गोदफ्रे केंडल संचालित करते थे. यहां शशि ने अभिनय के नए आयाम और बारीकियां सीखीं. और यहीं उन्हें थिएटर के साथ-साथ गोदफ्रै की बेटी जेनिफ़र से भी इश्क हो गया. ‘शेक्सपियाराना’ में अभिनय और इश्क परवान चढ़ता गया. और फिर आगे की ज़िंदगी के लिए थिएटर और जेनिफर, दोनों उनके हमसफर हो गए.
एक इंद्रधनुषी नायक
दरअसल, लोग शशि कपूर की बात करते हुए केवल बॉलीवुड तक सिमट कर रह जाते हैं. ऐसा करना शशि कपूर के व्यक्तित्व से बेइमानी होगी. शशि कपूर ने फिल्मों में काम किया. कई सफल फिल्में दीं. एक समय था जब अपने लुक, स्टाइल और अदाकारी के कारण वो लड़कियों के बीच खासे चर्चित थे. लेकिन इतना सब होते हुए भी उनका दिल थिएटर में रहा. और उसे लेकर वो पर्दे पर भी प्रयोग करते रहे.
कपूर खानदान में पृथ्वीराज कपूर परिवार की महिलाओं के अभिनय को प्रोत्साहित नहीं करते थे. लेकिन शशि और जेनिफर ने इस भेद को तरजीह नहीं दी. शशि कपूर की फिल्में और नाटक रूटीन विषयों पर केंद्रित नहीं रहा. और न ही सिनेमा में प्रयोगों का कैनवस कपूर खानदान और तत्कालीन भारतीय सिनेमा तक सीमित रहा. उन्होंने कला फिल्मों के लिए काम किया. अंग्रेज़ी में भारतीय सेट की फिल्मों के लिए काम किया. ये प्रोडक्संस इस्माइल मर्चेंट और जेम्स आइवरी के साथ होते रहे. और इस तरह शशि कपूर भारत के उन पहले चेहरों में हैं जो अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए सिनेमा बना रहे थे.
अपने प्रयोगों को सार्थक करने की ज़िद में उन्होंने फिल्मवालाज़ के बैनर तले कुछ फिल्में बनाईं. 36 चौरंगी लेन जैसी फिल्म उसी सिरीज़ का हिस्सा रहीं. 1979 में जुनून से शुरू हुआ यह सफर सिनेमा तो देता रहा लेकिन शशि अपना सारा पैसा इसमें खोते गए. 1991 में अमिताभ को लेकर शशि ने अपनी सारी ताकत अजूबा में झोंक दी और यह भी फ्लॉप रही. यहां से शशि टूट गए और फिर प्रोडक्शन बंद कर दिया.
जेनिफर 1984 में जा चुकी थीं. कुणाल और करन भी सिनेमा में आए लेकिन ज़्यादा दूर चल न सके. शशि कपूर इसपर हंसते हुए कहते थे कि वो चेहरे से अंग्रेज़ दिखते हैं इसलिए भारतीय सिनेमा में उनको वो जगह मिल नहीं सकी जो खुद शशि कपूर को हासिल थी.
1993 में उनकी बेटी संजना ने पृथ्वी थिएटर का काम संभाला. लेकिन आगे का सफर लोगों को रंगमंच के लिए जगह देने पर ज़्यादा केंद्रित रहा. खुद थिएटर के लिए प्रोडक्शन में सीमित होने के बजाय शशि और उनकी बेटी थिएटर के लिए जगह और जागरूकता देने के काम में लग गए.
और फिर कुर्सी पर शांत बैठा थिएटर को होता, चलता, बढ़ता देखता यह इंद्रधनुषी नायक धीरे-धीरे एकांत का आदमी बन गया. शम्मी कपूर के जाने के बाद वो और भी शांत हो गए. एक बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि परिवार में पुरुषों की यह अनुवांशिक समस्या रही कि जवानी में अच्छे भले शरीर उम्र बढ़ने पर भारी होते चले जाते हैं. यह कपूर खानदान के बारे में सच भी है.
शशि कपूर के काम में न अपने पिता जैसा शोर और उग्रता थी और न ही राज कपूर और शम्मी कपूर जैसी रफ्तार. वो आराम से काम करते हुए भी बॉलीवुड और थिएटर को ज़िंदा रख सके और सबसे अच्छी आयु जी सके, यह एक बड़ी उपलब्धि है.
शशि कपूर शांत हो गए हैं. लेकिन मुंबई में पृथ्वी थिएटर रंगमंच के लिए फिर से काशी बन चुका है. देश और दुनिया के रंगकर्मी यहां अपना काम लेकर आते हैं. शशि कपूर की बेटी संजना इस ज़िम्मेदारी को संभालती हैं. शशि कपूर इस तरह जाते-जाते भी जो दे गए हैं, वो आगे, बहुत आगे तक सिनेमा और थिएटर की ताकत बनता रहेगा. इस महान और अभूतपूर्व योगदान के लिए शशि को अपने खानदान के एक महान कलाकार और अलग चमक वाले सितारे के तौर पर याद किया जाएगा.